परमहंस प्रचिति
( तर्ज - मोल न कुछ भी लिया )
नग्न दिगंबर खुला ,
वह सन्त गजानन मिला ।
अपनी धुनमें चला ,
और चाहता है
कुछ तो खिला || टेक ||
मैंने रोटी मांगके खाया ,
भक्तिभावसे उन्हें खिलाया ।
वह कहते है , कुछ नहिं पाया ,
अहंकार सब दिला ! ॥१ ॥
अहंकार जब अर्पण कीना ,
तब कहे आशाको दे छीना ।
अपने पासमें कुछ नहीं रखना ,
तब जावेगी बला ! || २ ||
जो कुछभी मुझमें अवगुण थे ,
देकर बचे वो संतचरण थे ।
अब आगे सेवाके मन थे ,
आशिष देकर चला ! ॥३ ॥
नींद खुली जब आँख उठाया ,
भरा सिराना फूल झुकाया ।
तुकड्यादास कहे क्यों आया ,
समझा मैंने भला ! ॥४ ॥
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