मुख्य सामग्रीवर वगळा

पोस्ट्स

अनुभव प्रकाश - १ लेबलसह पोस्ट दाखवत आहे

हरगीज मेरा दिल मान रहा

हरगीज मेरा दिल मान रहा ।  जाना परदेश फिरानेको || टेक ||  टूट गया दाना -- पानी ,  हमरा इन नगरीवालोंसे  थोडे दिनकी अब बाकी है ,  फिर बांधू गाँठ सिरानेको ॥ १ ॥ आज तलक इस नगरीमे खुब झोंकझाँक मौजे कीन्ही बस माफ करो रहनेवालो जाता हूँ धाम फिरानेको || २ || कुछ लायी थी गठडी घरसे वह दिलसे खत्म करी सारी अब याद हुजुरकी है मनमे तुकड्या यह नाम गँवानेको || ३ ||

गुरुराज दयाल ! दया करके

गुरुराज दयाल ! दया करके ,  मोहे भवसारसे पार करो || टेक || नाम तुम्हारा पावन है ,  इन तीनों लोक - सराइनमें ।  पाप कटाकर दीननका ,  यह नौका पार उतार करो ॥ १ ॥  भूला हूँ जगबीच खड़ा ,  कोइ आस - मिटावन देख रहा ।   आप बिना दुसरा न दिखे ,  जग तारक ! दास - उद्धार करो ॥ २ ॥  लख चौरासी भूल पड़ा ,  बिरला मानुज - तन पाया हूँ ।   फिरसे न मिले यह बक्त गया ,  अब जन्म - मरनसे हार करो ॥ ३ ॥  आस तेरी घरके यहाँपे ,  दिन दास भिखारी आया हूँ   वह तुकड्यादास भुला सुधरो ,  वरदानसे मन मार करो ॥ ४ ॥ 

देखु किधर प्रभुजी

देखु किधर प्रभुजी !  तुमको मेरि आँख  भुली भटकी फिरती ॥ टेक ॥  ढूंढलि है दुनिया नगरी ,  सब धाम फिरा जा - जा करके ।  नहि खोज मिली मुझको कुछ भी ,  अब मौत चली तनमें सिरती ॥ १ ॥  दिनरान तेरे मिलने के लिये ,  यह नैया तार लगाय रही ।  कहाँ तूर छिपाकर बैठे हो ?  मेरि बात सुनी न तुम्हें परती ॥२ ॥  ऊँच तेरा दरबार प्रभू !  मुझको न पता पाता तेरा । दिनानाथ ! कृपा कर आय मिलो ,  मनमें रखिये न सदा धिरती ॥ ३ ॥  तनमेंभी मिली या जनमें मिलो ,  अजि ! जनमें मिलो जलदी - जलदी ।  यह बक्त गया फिर भूल पडे ,  तुकड्याकी आँख चली जिरती ॥४ ॥ 

पुरण प्रेम बताकर के प्रभु

पुरण प्रेम बताकर के प्रभु !  आपसमे तकरार किया ॥ टेक ॥  आँख तुम्हीं बनवाई है ,  पर आँखनको नहि भेद दिया ।  ज्ञान दिया मुझको तबभी,  अब ज्ञानको कौन मिलायलिया ? ॥१ ॥ रसवाचा तुमरीहि बनी ,  उसे नाम - पुकार नहीं चखिया |  तेरो अधार सभी तनको ,  उससे परमारथ क्यों न लिया ? ॥ २ ॥ तुमही तन हो तुमही मन हो तुमही तन-चालक मान लिया फिर यह तकरार नही करना तुकड्या भ्रमसे भुलवाय दिया || ३ ||

धन्य प्रभू ! करतार कलाबिन

धन्य प्रभू ! करतार कलाबिन !  खंब जगत तरकाय लिया || टेक ||   ऊपरसे जल नीचेभी जल ,  जलमें भूजल साँच रहा ।  उसपर बाग बना गहरा ,  इक नर और नार अकार किया ॥ १ ॥  उन दोनोंके रुप रंग बहुत ,  जिनका न कोईभी माप करे ।  इक मायाजाल बिछाकरके वहाँ  न्यारा मास दिखाय दिया ॥ २॥  आपही आप भरा सबमे ,  यह घूंघट ऊपर ले करके |  तुकड्या ' कहे जो तुझको सुमरे ,  उसिको निजरूप बताय दिया ॥ ३॥   

जाग मुसाफिर ! देख जरा

जाग मुसाफिर ! देख जरा  यह काम तेरा सब भूल गया || टेक ||  खास मकान भुला अपना ,  अरु दुसरेके घर राब रहा ।  मालिक होकर खिलकतका ,  क्यों चाकर भेष बढाय लिया || १ ||  राज गया सब नींदनमें ,  अरू काज गया भोलेपनमें ।  कहाँतक सोता बैठा है ?  यह चोरन संग उठाय लिया || २ || बीत गयी उमरी सारी ,  अब मौतमें भी कुछ देर नहीं ।  खास पता करके अपना ,  फिर कालनका डर दूर गया || ३ || छोड़ जगतकी लालचको ,  किस चोर - इजाजत बैठा है ।  तुकड्यादास कहे जागो अब ,  गुरू - चरण क्यों दूर किया ? || ४ || 

आशक क्या जगको समझे

आशक क्या जगको समझे ?  वह तो दुनियासे न्याराहि रहे । टेक ।।  पाप न जाने , पून न जाने ,  धर्म - कर्म कुछभी न करे ।  मस्त बसे तन - अंदर में ,  परमेश्वरका प्याराहि रहे ॥ १ ॥  क्या जगको समझाना है ?  उसे देखत पूरण काज भये ।  पाप कटे दर्शन करते ,  वहाँ प्रेमकी जलधाराहि बहे ॥ २ ॥  मरनेका डर है न जिसे ,  जोकि तनमें मरन मिलाय लिया ।  मुक्त सदा जगमेंहि रहे ,  वहाँ मरन - जिना माराहि रहे ॥ ३ ॥  धन्य उसीके भाग बड़े ,  दो चरण धरे उसके मनसे ।  तुकड्या गुण कुछ गात नहीं ,  इस सेवामें सारहि रहे ॥ ४ ॥ 

संतो ! संतनकी गत प्यारी

संतो ! संतनकी गत प्यारी ॥टेक ॥  नहि कछु माँगे भीख - भिखौवा ,  नहीं आप हितकारी ।  वे तो साधनसे है न्यारे ,  टूटी ' मै-तू ' सारी || १ || नहि चाहे कुछ पाप - पुण्यको ,  रुचिर भोग परिवारी ।  वे आतमसे लाग पडे है ,  हारी देख बिगारी || २ || नहि चाहे कछु सुखकी आशा ,  नहि माँगे दुख भारी ।  नहिं बांधे कछु जन्म - मरणसे ,  सबसे प्रीत पियारी || ३ || दीन नहीं अरु रैन नहीं जहँ ,  नहि बादल - अंधारी ।  नहीं उजारा पर - परकासा ,  आपहि खेल - खिकारी ॥ ४ ॥  नहि कछु स्वर्ग मृत्यु पाताला ,  तीनहु देह निवारी ।  वे तो सबके परे बसे है ,  निरक्षरहि निर्धारी ॥ ५ ॥  आपहि आप समाया निजमें ,  लगी ब्रह्म की तारी ।  होकर साक्षी सब इंद्रियका ,  देखे मौज पियारा ।। ६ ।।  नहि भूले रिद्धी- सिद्धीसे सीधो जात उजारी परा-परे पर लेटत जाकर जाप-अजापा हारी || ७ || तुकड्यादास कहे बिन संगत नहि पावे पद भारी बिरलाही जा पहुँचे उसमे जो कोई अर्थ बिचारी || ८ ||

झूठ पसार भया जग में ,

झूठ पसार भया जग में ,  अब आपहि आप बिचार करो ॥ टेक ||  स्वारथकी साथी दुनिया ,  बिन स्वारथ सारथ कौन करे ?  चाहे संत रहे कि महंत रहे ,  सब सोच सम्हल जिगरार करो ॥ १ ॥  संड धरम मँगने निकले ,  धर अंग मुलाम भगा कपरा |  खूब भेष बढाय लिया तनमें  उनसे न कभीभी प्यार करो ॥२ ॥  शास्त्र पुराण बहोत कहें ,  मतसे मत एक नहीं मिलता ।  सत्य विचार करा करके ,  फिर आपमें आप मिलार करो ॥३ ॥  तन - लकडीके बलपरही ,  कोइ बात बनी चल आवेगी ।  यह वक्त गया फिरसे न मिले ,  तुकडया कहे काम सुधार करो ॥ ४ ॥ 

संतो! बिकट रहन-निर्धारा

संतो! बिकट रहन-निर्धारा || टेक || दुनिया तजकर जंगल बैठे  अंग बारि-तप - धारा  दुनियाका तो संग न छुटा  पाप बढ़ावत भारा || १ || खाना पीना सुखसे होना ,  ऐसी उमर गुजारा दिला  ग्यान ध्यान कबहू नहि साधे ,  हसते रैन बिसारा || २ || जब तक अंग न आय उदासी ,  तब सब ढोंग-धतूरा  बिरला कोऊ जंगल पावे ,  भोगत कष्ट अपारा || ३ || नहि आशा रहने बहनेकी ,  अंतर - तार पियारा |  तुकड्यादास कहे वह पावे || ४ || 

प्यारे ! तेरी बिगडी कौन सुधारे

प्यारे ! तेरी बिगडी कौन सुधारे ? ॥टेक ॥ जबतक धन दौलत परिवारा ,  सब कोइ नाम पुकारे ।  कीचड में फँसगयि नौका तो ,  भग जाते घर सारे ॥ १ ॥  चलतीकी साथी दुनिया है ,  पडी न कोई तारे !  जबतक जाम तनूमें तेरे ,  तबही मौज किया रे ! ।। २ । ।  आमदसे खर्चा करता यह ,  अंतकालमें हारे ।  दाग पडी कुमती काटनको ,  तब जमराजा मारे ॥ ३ ॥  कहता तुकड्या ख्याल करो बे !  क्यों सोते हो प्यारे ।  सोनेसे यह मौज गयी फिर ,  भोगो पतन अपारे ।। ४ ।। 

सद्‌गुरु - धाम बिकट है भाई

सद्‌गुरु - धाम बिकट है भाई ! ॥ टेक ॥  जो कोई निज - ग्राम चलेगा ,  लगे पाँच दरवाई ।  महाद्वारपर नाक कटावे ,  सोहि चले भितराई ॥ १ ॥  लगे दूसरा दार वहाँपे ,  होवे जींह कटाई ।  बिन काटेसे कोउ न जावे ,  देवत संत गवाही ।। २ ।।  तिसरा दार लगे मँझघरका ,  काटे कर करताई ।  बेद पुराणहि गर्जत सारे ,  देख पडे प्रभुताई ॥ ३ ॥  चौथा दार बडा बिहराना ,  होवे कान - छँटाई ।  बाहरका वह कछु नहि जाने ,  सुनता नाद - दुहाई ॥ ४ ॥  लगे पाँचवाँ सुन्दर द्वारा ,  जहाँ सीस - उतराई ।  जगमग ज्योत पडे नजरोंमे ,  क्या गाऊँ कथवाई ॥ ५ ॥  रैनदीन अरु छीन नहीं जहँ ,  अखंड भेदा पाई ।  तुकड्यादास कह बिकटीसे ,  बिरला धाम चलाई ॥ ६ ॥ 

सद्‌गुरु अगम अगोदर भाई !

सद्‌गुरु अगम अगोदर भाई ! ॥ टेक ॥  क्या कहिये उनकी रहनीको ,  पता नहीं किन पाई ।  ब्रह्मगिरीमें बास जिन्होंका ,  अंतर मित वह साँई || १ || क्या जाने व दुनिया - दौलत ,  झूठी लोग- लुगाई |  अमृत - धार किनारा जिनका ,  देवत बेद गवाही || २ || क्या माने वह धर्म - कर्मको ,  आपही कर्म हुआई ।  सुन्न शिखर आसन दृढ जिनका ,  बाजत मेर - दुहाई || ३ || निर्मल प्रेम बसे जिनके घट ,  वहिपर करत कृपाई ।  तुकड्यादास चरण पर तिनके ,  गावे धून - धुनाई || ४ || 

प्रभु ! मेरी प्रीत तुम्हींसे लगाना

प्रभु ! मेरी प्रीत तुम्हींसे लगाना |  हरदम नैनन छाना || टेक ||  और न चाहत धन सुत दारा ,  दौलत माल खजाना |  रं - रंगीली तन दिन्हि मोहे ,  आखिर पास समाना || १ || काम क्रोध मद मत्सर सारे ,  ध्यानमों तेरे मिलाना ।  तुकड्यादास आसरा तेरो ,  और नहीं मन माना || २ ||

अब मै अपने पिया - संग लागी

अब मै अपने पिया - संग लागी ।  रैनदीन रहूँ जागी || टेक || मारूँ मार काम - क्रोधनको ,  बनाहि डारूँ बिरागी ।  तोड़ कुलूप किंवाडे खोले ,  इस घरसे वह भागी || १ || यह तो सब दिखवावनका है ,  जैसो बाँझ जनागी ।  झूठा जाल रचा नैननमों ,  देख पड़ा तब त्यागी || २ || तीनहु ताल राज सब तिनको ,  कौन कहे अब बागी ।  तुकड्यादास कहे सदगुरु बिन ,  रहती थी नित नागी || ३ ||

मेरी प्रभु दीननको दुख सहतो

मेरी प्रभु दीननको दुख सहतो ।  निरंतर भक्तनके संग रहतो ॥ टेक ॥    कभु तो खेचत ढोर चोखको ,  कभी जनीसंग धोतो ।  कभु तो चीर बढ़ावत तिनको ,  कभी नीच - मुख कहतो ॥ १ ॥  कभु तो काम करत भक्तनको ,  कभु खंबासू आतो  कभु तो जाकर जलके अंदर ,  मुक्त गजेंद्र करातो ॥ २ ॥  कभु तो खेलत नित लडकनमों ,  ग्वालबाल संग खातो । २ ||  तुकड्यादास कहे नहि यह तो ,  वह सब खेल खिलातो ॥ ३ ॥

जगमे ! हीरा मिलत कठिना

जगमे ! हीरा मिलत कठिना |  कोइ बिरलेने चीन्हा || टेक || क्या घर घर साधू फुर आया ,  तो वह जाय पछाना ।  बिन सागर नहि उपजे मोती ,  और जगह सब सूना ॥ १ ॥  जो कोइ होत रंगको रंगिया ,  सो रंग भर भर चीन्हा ।  नुगरोंके मन भूल बसत है ,  गोते खाय दिवाना ॥ २ ॥  अपने हेत नेत बदलाकर ,  घुमता है मनमाना ।  सो क्या तार - तरैया किसको ?  डूबे लेय जहाँना ॥ ३ ॥  मत भूलो ऊपरके रंगको ,  जब देखो अज़माना |  तुकड्यादास बिना सद्गुरुके ,  नहि पावत कहुं ग्याना ॥ ४ ॥ 

अहो गुरु ! काल बिकट आयो है

अहो गुरु ! काल बिकट आयो है ।  सब जग भ्रम छायो है || टेक || कहँ तो बिकत मोतिसम फूगा ,  बाहर - रंग भायो है ।  आप मरे औरनको मारे ,  कोउ न सुख पायो है ॥ १ ॥  सब अपनी अपनी बतलावे ,  दौरत भ्रम खायो है ।  ' तू मेरा में मेरा ' समझे ,  काम - कपट न्हायो है ॥ २ ॥  कबहू न नेम-धरमको पाले मतलब गुण गायो है दुर्लभ नाम तुम्हारी मुखमे सब रँग रँग भायो है || ३ || क्या कहिये अब न बने कहते जाल निकट आयो है तुकडयादास कहे किरपा कर सब दुख टल जायो है || ४ ||
अहो गुरु ! कौन सु - मारग धरिये ,  भवजल पार उतरिये || टेक || चंचल मन रोका नहि जावे ,  नितउत भटकत फिरिये  स्थीर जरा पलपरभी न ठहुरे ,  और और बल हरिये || १ || योग जाप करनेको जावे।    लोभ मदादिक भरिये  इंद्रिय - आशा - पाश न छूटे ,  भौर भौर कर फिरिये  || २ || परमार्थको साधन लाग्यो ,  स्वारथ आन बिचरिये  नीचऊँच दिल भाव बसत है ,  क्या कहाँ जाकर मरिये ? ॥ ३ ॥  तुम तो नाथ ! दयाके सिंधू ,  तुमहीसे मन लरिये ।  तुकड्यादास बिना गुरु किरपा ,  कैसे अँधारी टरिये ? ॥ ४ ॥ 

मोसम कौन कुटिल खल कामी

मोसम कौन कुटिल खल कामी ?  तुम प्रभु । अंतरजामी || टेक || रैन दिवस विषयनको आशा ,  न किसे करत ' नमामि '  दिनदिन छिनछिन निंदक बोलूं ,  बनुं कैसे निजधामी ? || १ || साधु - संतको कबहु न पूजे ,  अभिमानी तन स्वामी !  स्वारथमें सारथसम डोलूं ,  न रहूँ किसिका प्रेमी || २ || आशा - मनशा घरदारनमें ,  तिरिया सुतको हामी ।  तुकड्यादास दया कर हमपे ,  नहि तो व्यर्थ गुलामी || ३ ||