संतो ! संतनकी गत प्यारी ॥टेक ॥ नहि कछु माँगे भीख - भिखौवा , नहीं आप हितकारी । वे तो साधनसे है न्यारे , टूटी ' मै-तू ' सारी || १ || नहि चाहे कुछ पाप - पुण्यको , रुचिर भोग परिवारी । वे आतमसे लाग पडे है , हारी देख बिगारी || २ || नहि चाहे कछु सुखकी आशा , नहि माँगे दुख भारी । नहिं बांधे कछु जन्म - मरणसे , सबसे प्रीत पियारी || ३ || दीन नहीं अरु रैन नहीं जहँ , नहि बादल - अंधारी । नहीं उजारा पर - परकासा , आपहि खेल - खिकारी ॥ ४ ॥ नहि कछु स्वर्ग मृत्यु पाताला , तीनहु देह निवारी । वे तो सबके परे बसे है , निरक्षरहि निर्धारी ॥ ५ ॥ आपहि आप समाया निजमें , लगी ब्रह्म की तारी । होकर साक्षी सब इंद्रियका , देखे मौज पियारा ।। ६ ।। नहि भूले रिद्धी- सिद्धीसे सीधो जात उजारी परा-परे पर लेटत जाकर जाप-अजापा हारी || ७ || तुकड्यादास कहे बिन संगत नहि पावे पद भारी बिरलाही जा पहुँचे उसमे जो कोई अर्थ बिचारी || ८ ||