समताकी ज्योति ! नैयाके खिवैया !!
( तर्ज - यह प्रेम सदा भरपूर रहे )
गुरुराज गजानन ! संत बड़े ,
परमारथ के अधिकारी थे ।
जिनके चरणों के भक्ती की ,
कई लाखोंभी नर नारी थे || टेक ||
ये मस्त रंगे अपने तन में ,
नहिं थी सुध दुनियादारी की ।
अवधूत दिगंबर प्यारे थे ,
अपने में आप उजारे थे ॥१ ॥
लाखोंकी इच्छा तृप्त करी ,
लाखों के मन परकाश दिया ।
खुद अनुभव के भंडारे थे ,
दासों के नित रखवारे थे ॥२ ॥
मुस्लिम के ये वलिराज बड़े ,
हिंदूके थे वो मूकुटमणी ।
नहिं था ये भेद कहीं उनमें ,
सबमें रहके फिर न्यारे थे ॥३ ॥
जो चित्तसे ध्यान धरे उनका ,
वो दर्शन अभितक पाते है ।
शेगांव खुला दरबार भरा ,
जहाँ , पहिलेसे रम जाते थे ॥४ ॥
तुकड्या की आसा पूर्ण करी ,
उनके धुनमें रम जाने की ।
खुद धुनिया थे , धुनवैया थे ,
भारत के नैया तारी थे ॥५ ॥
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