मन बसा एकही आखरी
( तर्ज : मज सवे बोल रे माधवा ... )
मन बसा एकही आखरी ।
बिन सत्गुरु कोउ न तारी ||टेक||
सब चाहते स्वारथ ही अपना ।
जिधर -उधर है अपना रोना ॥
इसमें भूले हैं नर नारी ! ॥१ ॥
पर-उपकार की बात कहाँ है ?
बदला माँगे जहाँ -वहाँ है
दे थोडा , पर माँगत भारी ! ॥२ ॥
प्राण पिताका उडने लागा ।
धनके खातर बेटा भागा ||
होय पिताकी मौत बिचारी ! ॥३ ॥
ऐसी दुनियाँ में क्या रहना ?
सतगुरु के चरणों में मरना ।।
तुकड्या कहे , अर्जी है हमारी ! ।।४ ।।
गोंदिया ;दि. २१. ९. ६२
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