वो सन्त की बानी !
( तर्ज : ओ निर्दयी प्रीतम ... )
ओ सन्त की बानी ,
घर घर जानी ॥ कौन है ऐसा ?
नहीं जानेगा ! प्राणी ! || टेक ||
सब प्रदेश मे संत हुये
सब भाषामें गीत कहे ।
एक्का अर्थ यहीं निकला है ,
सबके सँग बंधुता रहे ।।
फिर क्यो जनता , कहीं नहीं मानी ,
क्यों रहती अज्ञानी ? ॥१ ॥
संत तुकोबा यौ बोला ,
नीच ऊँच जो भेद चला ।
सब सारथ का धंदा है ये ,
ईश्वर तो सबमें है खुला ॥
जात - पात जो यों लड़ती है ,
है कारण अभिमानी ! ॥२ ॥
संत सावता भक्त बडा ,
खेती में ही रहे खडा ।
मूला - प्याज बनाकर सबको
दिखा दिया था मार्ग बड़ा ॥
यही हमारी प्रभु - भक्ति है ,
नाज उगे मनमानी ! ॥३ ॥
संत कबिरका था डंका ,
मत मानो कोई शंका ।
सभी धरमका एकही कहना ,
सेवा कर सबका ॥
शास्त्रको तो हमने छाना ,
कोई दुखाओ न प्राणी ! ॥४ ॥
तुकड्यदासका कहना है ,
यही बातें फैलाना है ।
जाता है , न आना है ,
सबमें समझ बढाना है ।
मानको जगाओ , सेवामें लगाओ ,
तभी बने जिंदगानी ! ॥५॥
वरुड : दि . ७-१०-६२
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