मेरे गुरुदेवसे
( तर्त : चाँद जाने कहाँ ... )
मेरे गुरुदेवसे दो मिला ।
मैने अपने जीवनको ,
मिटाना न था ॥ टेक ॥
हुक्म था कि मैं
मानव - जनम पाउँगा ।
प्यारे भगवनकी
सूरत नजर लाऊंगा ।
आजही मैं तो कैंसा भुला !
काम - क्रोधो के
रसको चटाना न था ! ॥१ ।।
जैसी संगत मिली थी मुझे ।
वैसी रंगत चली थी मुझे ॥
पर ये देखा तो सब खोखला ।
अच्छा जीवन ये
दुख में बँटाना न था ! ॥२ ॥
अबके आती है सारी
शरम ही खुली ।
मैंने सत्संग की तो
न देखी गली ॥
राह सन्तों ! - ये देना भला ?
कहता तुकड्या ,
ये मौका हटाना न था । ॥३ ।।
सेवाश्रम आमगांव ;
दि . १६-१-६२ ।
टिप्पण्या
टिप्पणी पोस्ट करा