( तर्ज उँचा मकान तेरा ० )
ऐ नाथ ! सुन हमारा ,
घर दुर्जनोंने लूटा ।
कबसे सुना रहा हूँ ,
कफसे अवाज टूटा || टेक ||
मालिक है तू जगत्का ,
इन्साफ कर दे मेरा ।
कितना अभी सहूँ मैं ?
सहनेका वक्त खूटा ॥ १ ॥
तूने अगर बनाई ,
दुनियाकी यह बगाई |
फिर पाप क्यों बना है ?
हमरा नशीब फूटा || २ ||
पल नाम मुख न आवे ,
विषयोंमें मन लुभावे ।
साथी न कोई आवे ,
जब काल दे चपेटा || ३ ||
काया बिखर रही है ,
तुमको खबर नहीं है ।
तुकड्या कहे यह सुध लो ,
तेरी कसम , न झूठा ॥ ४ ॥
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