तोरि प्रीत लगी
( तर्ज : तुझी प्रीत उघड करू कैसी )
तोरि प्रीत लगी फिर नीत कहाँ ?
तब रीत - भात अरू जात कहाँ ??
यही तो है मोरि जीत यहाँ ! ॥ टेक ॥
कहाँ कुबजाने जप - तप कीन्हो ।
रघुबरने आकर मन चिन्हो ॥
देखा नहीं प्रभू भेद तहाँ ! ॥१॥
झूठे बेर खात भिल्लन के ।
क्यों नहिं जाती देखे उसके ? ?
भगतन के बीच मस्त रहा ! ॥२ ॥
कब गजने योगादिक साधे ?
प्रभू धाये तब भागे - भागे ॥
द्रौपदि का नहिं दुख सहा ! ॥३ ॥
केवट ब्रह्म भोज कब दीन्हे ?
वेश्या गणिका क्या गुण चिन्हे ??
तुकड्या कहे , यही रंग रहा ! ।। ४ ।।
गुरुकुंज : दि . ३०. ८. ६२
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