मुझमें नहीं अधिकार !
( तर्ज : गुरु कृपा का अंजन पाया ... .. )
मुझमें नहीं अधिकार बडा ,
यह मेरा मैं जानूं
काम - क्रोधसे हूँ जकडा ,
यह मेरा मैं जानूं !! || टेक ||
दुनिया चाहे सन्त कहे ,
पर मैं तो दासके पात्र नही
आलसी हूँ , आराम चहूँ ,
मुझमें सेवाके गात्र नहीं
स्तुती करे तो हर्षता हूँ ,
गाली से मै नम्र नहीं ।
समय देखकर बकता हूँ मैं ,
मुझे जरा भी सब्र नहीं ।
धन मिलने पर रहूँ खडा ,
यह मेरा मैं जानूं
काम क्रोधसे हूँ जकडा ,
यह मेरा मैं जानूं !! || १ ||
साधू भेख बना तो क्या है ?
साधूके गुण ना मुझमे
बडा दूर है , साधूका घर ,
कैसे पावे हम उसमे मुझमें
किसका भला किया नहीं हमने ,
किसको नहिं प्यारा माना
मतलब करने दौड़ा घर - घर
मतलबसे जन पहिचाना
आज भी तो हूँ यही खडा ,
यह मेरा मैं जानू
काम - क्रोधसे हूँ जकडा ,
यह मेरा मैं जानूं !! || २ ||
सच्ची क्रांतीकी ज्वाला में ,
मैंने कदम नहीं डाला
दूर - दूरसे किया वाहवा ,
जपी नहीं उसकी माला
किसके नहीं छुडाये दुर्गुण ,
बल्के मैंने भाग लिया ।
भजन - पुजन तो भला किया ,
पर जरा न दिलको जाग लिया ।
आशा मनशा में पकड़ा ,
यह मेरा मैं जानूं !
काम - क्रोध से हूँ जकडा ,
यह मेरा मैं जानूं !! || ३ ||
साधु - संतके नामसे जगना ,
यही हमारा नाम रहा ।
घर - घर रोटी माँग के खाना ,
सदा हमारा काम रहा ।।
अब क्या होगा आगे ,
सारी उमर तो इसमें गँवा दिया ।
कभी न पश्चाताप किया ,
जो मैंने इतना पाप किया ।
दुनिया कहे , अवलिया बडा ,
यह मेरा मैं जानूं !
काम - क्रोधसे हूँ जकडा ,
यह मेरा मैं जानूं !! ॥ ४ ॥
ब्रह्म - ज्ञान भी बोला तो क्या ,
तोता भी तो पढता है ।
जिसमें उसकी मजा नहीं ,
वह नाहक ही तो अडकता है ।
इसका पता अब मुझे
चला कि सारी उमर गयी बीती । तुकड्यादास कहे , बस इतनी ही ,
बातें हमने जीती ॥
ज्ञानी के घर नहीं चला ,
यह मेरा मैं जानूं !
काम क्रोधसे हूँ जकडा ,
यह मेरा मैं जानूं !
नागपुर - वृंदावन प्रवास ;
दि . ७-११-६२ ,
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