( तर्ज - अजि ! कौन जगा जगनेकी है ० )
क्यों भूल रहा बिरथा प्यारे !
चल ऊठ गडी ! हरिगुण गा रे ॥टेक ॥
दुर्लभ यह मानुज - तन पाया ,
चौरासीके बाद मिलाया ।
आगे मत झटके खारे !
चल ऊठ ० ।। १ ।।
निर्मल भाव रखाकर मनमें
सेवा कर जगकी जीवनमें ।
तब हरि भवसागर तारे ,
चल ऊठ ० ।।२ ।।
सत् - संगतकी पी ले बूटी ,
इच्छा मत कर मनमें झूठी ।
भय संकट सारे हारे ,
चल ऊठ ॥ ३ ॥
तुकड्यादास कहे ' हरि ' गाओ ,
हरिका निर्मल ध्यास चढाओ ।
हरि होना सुखही सारे ,
चल ऊठ ० ॥४ ॥
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