( तर्ज अलमस्त पिलाया प्याला ० )
अजि ! सुनो ग्यानकी बाता ,
जहाँ अपना रूप सुहाताजी ॥टेक ॥
इस तन अंदर जलती धूनी ,
बुझे न कोई बुझाता ।
मरे - जियेपर कभी न बूझे ,
अलख लखे सो पाता जी ॥ १ ॥
पंच तत्त्वका पिंजरा अंदर ,
निर्मल दीपक जलता ।
सोहँ ज्योती धुन अनहदकी ,
चढे तार मन भाताजी ॥२ ॥
उलट आँखको , लखो गगनमों ,
नाना रंग दिखाता ।
चढ़े निशा अलमस्त ,
प्रेम जब , गुरु - ग्यानको
पाताजी ॥ ३ ॥
तुकड्यादास बिना सत् - संगत ,
नहि लगता यह नाता ।
बिरलेने लूटी ये जड़ियाँ ,
लुंगरा गोता खाताजी ॥४ ॥
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