( तर्ज अब तुम दया करो महादेवजी ० )
इस जगमें है अमृत सार ,
साधूसंत जनोंने पाया ॥ टेक ॥
जिस हालत में प्रभु राखे ,
बस खुशी उसीमें चाखे ।
सुख दुःख समान जिन्होंकेजी ,
वश कीन्ही घटमें माया ॥ १ ॥
जहँ रुखी - सुखी वह खाना ,
जहँ जगह मिली वहँ सोना ।
जल मिले तो प्यास मिटानाजी ,
दिलखुशी वहींपर सोया ॥२ ॥
' जो देगा वहभी दाता ,
ना दे तो वहभी दाता ' ।
यह अमल चले अजमाताजी ,
निज - रुपमें ध्यान समाया ।। ३ ।। अलमस्त- नशा है प्यारी ,
ना फिकर मरणकी न्यारी ।
कहे तुकड्या वह बलिहारीजी !
जिन प्रभुका प्रेम समाया ॥४ ॥
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