( तर्ज - भले वेदांत पछाने हो ० )
खोजो सार जगतमाँही ।
दिवाना होना नहि भाई ! ॥ टेक ॥
बालकपन खेलनमें खोया ,
तारुणपरणं आई ।
अंधा होकर भुला विषयमें ,
धीरज नहि पाई ॥ १ ॥
बूढेपनमें टोकर काया ,
हड्डी रह जाई ।
आये वैसे चले अकेले ,
क्या सार्थक पाई ? ॥ २ ॥
इसी तरहसे बाप बडे सब ,
खोये जगमाँही ।
तू तो सावध हो जा प्यारे !
क्यों दिल भरमाई ? ॥ ३ ॥
कहता तुकड्या दास गुरूका ,
भज ले यदुराई ।
वही सार है और सभी यह ,
झूठा जग भाई ! ॥ ४ ॥
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