( तर्ज - संगत संतनकी करले ० )
भज तू हरिको ऐसा रे ।
दिवाना होय सदा प्यारे ॥ टेक ॥
षड् विकारको करले काबू ,
पंचविषय को मारे ।
चित्त स्थिरकर घटके अंदर ,
रोशन आँख उजारे ॥१ ॥
सप्त चक्रके फूलों अंदर ,
जगमग चमके तारे ।
कहिंसे ब्रह्मा , कहिंसे विष्णू ,
कहीं इंद्र प्रगटा रे ॥२ ॥
जागृत , स्वप्न , सुषुप्ती , तुर्या ,
इनकी हैं मढियाँ रे । '
आतम ' राजा रमे उसीमें ,
अनुभव पावे न्यारे ॥ ३ ॥
कहता तुकड्यादास गुरूका ,
नशा चढ़ाले उसकी ।
जभी मिलेगा दर्श हरीका ,
छोडो आशा मनकी ॥ ४ ॥
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