( तर्ज - अलमस्त पिलाया प्याला ० )
दिलखुशी फकीरी पाई ।
अब नही फिकर है भाई जी ! ॥टेक ॥
हटाके दुनिया लगा बभूती ,
रँगे गुरू - पदमाँही ।
सत्संगतकी नशा चढाकर ,
निर्भयपदको पाई जी ॥१ ॥
महल - अटारी क्या जाने अब ?
रही न धनकी हाई ।
मिले जहाँपर रूखी सूखी ,
गरज भली करवाई जी ॥ २ ॥
काम क्रोधको मार - मारकर ,
काबू अमल कराई ।
कफरकुफरको लगाके डंड़े ,
दिल भरवाया साँई जी ॥ ३ ॥
प्रेम - भक्तिकी चढाई कफनी ,
दयाकि माल धराई ।
तुकड्यादास कहे अब मनमें ,
जनम - मरण कुछ नाहीजी ॥४ ॥
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