( तर्ज - हर जगह की रोशनी में ० )
प्रेम करने का मजा ,
भगवान मेरे जानते ।
विषयी क्या जाने उसे ?
जो चाम ही पहिचानते || टेक ||
प्रेम की बुनियाद है ,
चैतन्य आत्मा से लगी ।
इसलिए हम तो सदा ,
सच प्रेम प्रभु ही ठानते ॥ १ ॥
देह तो मुर्दा है यह ,
है प्रेम आत्मा में भरा । '
मैं वही हूँ ' ग्यान से ,
रस सुक्ष्म सन्त हि छानते ॥ २ ॥
द्रौपदी का प्रेम था ,
भगवान को झुकना पड़ा ।
बेर झूठे शबरी के पर ,
राम भी कुर्बान थे ॥ ३ ॥
उस विभीषण को खबर ली ,
राज्य भी सौंपा उसे ।
था सुदामा रंक ही ,
प्रभु उसलिए हैरान थे ॥ ४ ॥
आज भी भगवान पर ,
जो प्रेम करता है सही ।
डर नहीं उसको कहीं ,
तुकड्या कहे प्रभु मानते ॥ ५ ॥
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