( तर्ज : आया हूँ दरबार तुम्हारे )
मानवता ही धर्म का बाना || टेक ||
अपने सुखकी चाह सभीको ,
यह तो मोह पशू - पक्षीको
परहित करे सो समझ सुजाना |
मानवता ॥ १ ॥
सबके साथ रहे मिलजुलके ,
नहिं अभिमान करे कभु भुलके ।
खलके वचन सहे सुन काना |
मानवता ॥ २ ॥
अपना कर्म - धर्म नहीं छोड़े ,
चोरी - जारीमें मन नहिं मोडे ।
सेवाही है मनका ठिकाना |
मानवता ॥३ ॥
सहज स्वभाव सबनसे प्रीति ,
नीच - ऊँच नहिं मनपर बीती ।
कहे तुकडया , वही निर्मल ग्याना । मानवता ॥४ ॥
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