( तर्ज - छन्द )
मैं बिलकुल संसारी नहीं ,
पर व्याप न कम संसारका है ।
फुरसत पलकी नहीं जानको ,
घेरा सब परिवारका है ॥ टेक ॥
' सबके सुख - दुख मेरे है '
ऐसा जी मेरा मान गया ।
उस कारणसे चैन नहीं है ,
एक हुआ दुसरा है नया ॥
अच्छी - बूरी रोज फिकर है ,
जैसा - जैसा जीव मिले ।
सबके दिलमें खुशी रहे ,
ऐसीही मुझमें माल चले ॥
वास्तविक मैं निर्मल हूँ ,
मुझमें प्रेम करतारका है ।
फुरसत पलकी नहीं जानको ,
घेरा सब परिवारका है ॥१ ॥
भजन पुजनमें जाता हूँ ,
तब बिना भक्तिके ख्याल नहीं ।
उनके रंग में रंग जाता जब ,
मेरी अपनी चाल नहीं ॥
जब वेदान्त कथामें बैठूं ,
मुझको लगता कमी नहीं ।
मैं हूं आतम् ब्रह्म निरामय ,
जीव ब्रह्ममें भेद नहीं ॥
परिवर्तनशिल ये नाटक जो ,
मनके रचे विकारका है ।
फुरसत पलकी नहीं जानको ,
घेरा सब परिवारका है ॥२ ॥
इतने दिन मैंने सुख पाया ,
हाथमें लीया माल नहीं ।
कितने दिन रोया दुखियोंमें ,
भरा न आँसू थाल कहीं ॥
अबके जब जाऊंगा बेडर
बनके मुझपर जाल नहीं ।
मैंने अपना किया न कुछ भी ,
तब होगा क्यों हाल कहीं ?
तुकडयादास कहे ,
पानीमें पानी मिले मँजधारका है ।
फुरसत पलकी नहीं जानको ,
घेरा सब परिवार का है ॥३ ॥
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