( तर्ज - आकळावा प्रेमभावे श्रीहरी . )
भेद मत करना कहीं ,
सत्पंथ में , सत्संत में ।
उपदेश सबका एक ही है ,
तारनेको अन्त में ॥ टेक ॥
जो करे निन्दा गुरूकी ,
बोलकर मन मोड दे ।
बनता नहीं तुझसे अगर ,
उठजा जगा वह छोड दे ॥१ ॥
प्रेम गुरूसे जब किया ,
तब क्या समझ करके किया ?
सत्ग्यान ही है सत्गुरू ,
समझा नहीं तो क्या किया ? ॥२ ॥
दिल दिया सत्संगमें ,
तब तो परमपद पा गया ।
हर जगा गुरू - मुर्ति है ,
सत्शिष्य के मन भा गया ॥३ ॥
गुरूकी आज्ञा ही बडा
धन - मान है और पून है !
कहत तुकडया जान लेना ,
वही बनेगा पूर्ण है ! ॥४ ॥
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