( तर्ज कौतुक किती ऐकवावे देवाचे ? )
दम्भ गया जिनका , मद - काम गया ।
विषयों के चिन्तन का प्रेम गया ॥टेक ॥
अबतो उसे एकही है नारायण ।
भावना न भिन्न रही करने दमन ॥
देखता जिधर भी , भिन्न भान गया ॥ १ ॥
है प्रेम की ही लेन-देन जिन्दगी में ।
सबका भलाही हो , भरा है बन्दगी में ।
जनम-जनम का जमा था ,
दोष गया ॥२ ॥
है खेल जगत नारायण करती है ।
सब लीला को रचता और नचता है ।
प्रकृति और पुरुष का भी भेद गया ॥३ ॥
अब जीव , ब्रह्म एक ही अभेद बने ।
अपनेमें एक से अनन्त बने ।
तुकडया यह अनुभव पहिचान गया ॥४ ॥
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