( तर्ज - अवचित आली वेळा बाई ! )
जो करना वह सोच समझकर ,
बिन सोचे सब धोखा होगा ।
दान करो तो पात्र समझकर ,
नहीं तो दान भी धोखा होगा || टेक ||
वह ब्राह्मण कैसे कह पाया ?
जिसने संध्या छोड दिया ।
पूजा जप - तप नहिं करता है ।
वह दानोंके पात्र न होगा ॥१ ॥
वह साधू कैसे हो सकता ?
जो जनकी सेवा न करे ।
खाली माला - तिलक लगाये ,
दानोंको ले रवाना होगा ॥२ ॥
दलित समझकर दान उठावे ,
शराब पीके गालि सुनावे ।
ऐसो को जो दान दिया हो ,
उन दानोंका फिर क्या होगा ? ॥३ ॥
छात्र समझकर दान दिया है ,
वह पढके भी गुण्ड भया है ।
नीती रीती कुछ नहिं समझे ,
उन दानोंका फिर क्या होगा ? ॥४ ॥
इसीलिये कहता हूँ ,
सुनिये - दान करो तो ग्यानी बनिये ।
तुकडयादास कहे , नहीं तो फिर ,
दान - धर्म भी धोखा होगा ॥५ ॥
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