कहे जनक सुनो शुक भाई !
घटमें साँई गोरहा है । टेक ॥
जबतलक ' अहं ' नहि जाना ,
तबतलक झूठ भरमाना ।
आना वैसा चलजाना ,
जनना मरना भो रहा है ॥ १ ॥
मोहे कौन जिवन में लाया ,
नहि जाना फिर पछताया ।
आखिर में गोता खाया ,
बिरथा काया खो रहा है ॥ २ ॥
नहि आत्मरंग मन कीन्हा ,
सब बिरथा जगमें जीना ।
जप तपसे कुछ महि लीन्हा ,
आकुल सीना हो रहा है ॥ ३ ॥
निज - नैन पता पावेगा ,
फिर ' सोहं ' चित लावेगा ।
ओहं ' सब मिट जावेगा ,
तुकड्या धागा धो रह । है ॥ ४ ॥
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