रे मन ! मतकर सहबत झूठी ।
नित पो गमकी बुटी || टेक ||
आठहु जाम प्रभु - सुमरण कर ,
तोड कामको चटी ।
निजानंदमें मस्त रहे जब ,
मिले ब्रह्मरस - घूंटी ॥ १ ॥
जब जब बिपत पडे तनहूपे ,
तब तब जागो ऊठी ।
ज्ञानशास्त्रको पास कराकर ,
तोड कालकी खूंटी ॥ २ ॥
तुकड्यादास कहे निश्चय कर ,
तबही आशा छूटी ।
आशा - मनशा जबलग घरमों ,
तबलग द्रोहकी कूटी ॥ ३ ॥
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