मेरी प्रभु दीननको दुख सहतो ।
निरंतर भक्तनके संग रहतो ॥ टेक ॥
कभु तो खेचत ढोर चोखको ,
कभी जनीसंग धोतो ।
कभु तो चीर बढ़ावत तिनको ,
कभी नीच - मुख कहतो ॥ १ ॥
कभु तो काम करत भक्तनको ,
कभु खंबासू आतो
कभु तो जाकर जलके अंदर ,
मुक्त गजेंद्र करातो ॥ २ ॥
कभु तो खेलत नित लडकनमों ,
ग्वालबाल संग खातो । २ ||
तुकड्यादास कहे नहि यह तो ,
वह सब खेल खिलातो ॥ ३ ॥
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