संतो! बिकट रहन-निर्धारा || टेक ||
दुनिया तजकर जंगल बैठे
अंग बारि-तप - धारा
दुनियाका तो संग न छुटा
पाप बढ़ावत भारा || १ ||
खाना पीना सुखसे होना ,
ऐसी उमर गुजारा दिला
ग्यान ध्यान कबहू नहि साधे ,
हसते रैन बिसारा || २ ||
जब तक अंग न आय उदासी ,
तब सब ढोंग-धतूरा
बिरला कोऊ जंगल पावे ,
भोगत कष्ट अपारा || ३ ||
नहि आशा रहने बहनेकी ,
अंतर - तार पियारा |
तुकड्यादास कहे वह पावे || ४ ||
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