देखु किधर प्रभुजी !
तुमको मेरि आँख
भुली भटकी फिरती ॥ टेक ॥
ढूंढलि है दुनिया नगरी ,
सब धाम फिरा जा - जा करके ।
नहि खोज मिली मुझको कुछ भी ,
अब मौत चली तनमें सिरती ॥ १ ॥
दिनरान तेरे मिलने के लिये ,
यह नैया तार लगाय रही ।
कहाँ तूर छिपाकर बैठे हो ?
मेरि बात सुनी न तुम्हें परती ॥२ ॥
ऊँच तेरा दरबार प्रभू !
मुझको न पता पाता तेरा ।
दिनानाथ ! कृपा कर आय मिलो ,
मनमें रखिये न सदा धिरती ॥ ३ ॥
तनमेंभी मिली या जनमें मिलो ,
अजि ! जनमें मिलो जलदी - जलदी ।
यह बक्त गया फिर भूल पडे ,
तुकड्याकी आँख चली जिरती ॥४ ॥
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