मुख्य सामग्रीवर वगळा

पोस्ट्स

दिया खुशीसे जान प्राण

 ( तर्ज - छंद )  दिया खुशीसे जान प्राण  है संकट में उतरा ।  नैय्या पडी मँझधार - उतरा  चारों ओर खतरा ॥धृ ० ॥  माल पडा है जगाजगापर ,  पर खाने को रोना ।  जहाँ वहाँ इंतजाम बाँका ,  पर होती है दैना ॥  समझ नहीं आता है ,  ईश्वर भी क्यों देख रहा है ।  पाप हमारा बढा हुआ है ,  क्यों नहीं यह कहता है ।  कौन इसे समझायें  दुनियावालों नेक रहो ना ।  ईश्वर के घरमें तो होता ,  ईमान का ही पाना ॥  या तो सत्ता ऊठ चले ,  अब - बचा बचाकर पथरा ।  नैय्या पडी मँझधार - उतरा  चारों ओर खतरा ॥ १ ॥  नहीं रहा इन्सान कहीं ,  जो ऊठ अवाज उठा दे ।  जो मिलता वह जेबही काटे ,  भले हो सीधे सादे ॥  घर - घर में हो भ्रम फैला है ,  नहीं विश्वास भी अपना ।  कैसा काम चलेगा- यह तो ,  दिख पडता है सपना ||  धर्म गया और कर्म गया  हसता रस्तेका चतरा ।  नैया पडी मँशधार - उतरा  चारों ओर खतरा ॥ २ ॥ निसर्ग भी कुछ देख रहा है ,  कितना पानी इसमें  पानी बिन जिन्दगानी कैसी ,...

आसामी भाई के खातिर

 ( तर्ज - हरिका नाम सुमर नर ० )  आसामी भाई के खातिर ,  धीर दिलाने आये हम ।  हिंमत मत छोडो संकटमें ,  विजय इसीमें पाये हम || टेक || शत्रूने हमला ला करके ,  जगमे खुद बदनामि किया ।  बुरा नतीजा होगा इसका ,  उसको कर दिखलाये हम ॥ १ ॥  बच्चा - बच्चा साथ तुम्हारे ,  लडनेको इस दुष्मनसे ।  कायर बनके नहीं रहेंगे ,  या तो सब कट जायें हम ॥ २ ॥ जिस भारतने ज्ञान दिया ,  वह रहन - सहन इन्सानीका |  उसीपर गोलीबार चलाना ,  नीति तुम्हारी पाये हम ॥ ३ ॥  आसामी , बंगाली , हिमालय  नहीं छोड़ेंगे- याद रखो ।  तुकड्यादास कहे , अब लडलो ,  गरज - गरज बतलाये हम ॥ ४ ॥ 

धर्मराज नेपाल ! यहाँ है

  ( तर्ज - सच्चे सेवक बनेंगे जब )  धर्मराज नेपाल ! यहाँ है ,  पशुपति ईश्वर का बासा |  वीर लोग सत्य के पुजारी ,  सु - विनय प्यारा गुण ऐसा || टेक || जिधर उधर सौंदर्य सृष्टि का ,  पर्वत का है परकोटा ।  हर मन्दर में बजती भेरी ,  मंगल गूंज उठे घण्टा ॥  राजाओं की परम्परा ,  सेवा का भावुक स्थान यहाँ ।  खाना - पीना सहज सरल है ,  खेती भी उपजाऊ यहाँ ॥ '  राजा महेंद्र प्रताप ' यहाँ के ,  श्रद्धा जिनकी साधू पर ।  स्वतंत्रता है सब बातों की ,  ना उनको शत्रु का डर ॥  हिंदूओं की अमर ज्योति का ,  प्रकाश है फैला खासा ।  वीर लोग सत्य के पुजारी , ॥ १ ॥ नेपालहि की कपिल वस्तु में ,  हुये बुद्ध भगवान सुना ।  गोरखनाथ का भारी आसन ,  पशुपति के सन्निध बना ॥  भारत का हर सन्त यहाँ पर ,  दर्शन करने आता है ।  एकमुखी रुद्राक्ष,शंख उजला  देखे सुख पाता है भारत का संबंध यहाँ पर ,  सदियों से भी चलता है ।  आना - जाना सदा रहा है ,  आज भी फलता - फुलता है ॥  यही मारकर भौमासुर को...

बेधर्मी और गंदे जनसे

 ( तर्ज - हरिका नाम सुमर नर प्यारे ० )   बेधर्मी और गंदे जनसे ,  काम पडा है लडने का ।  जिसने भाई - भाई कहकर ,  भारतपर लादा धोखा ॥टेक ॥  भारतसे ही ज्ञान सिखा  और गुरुके सिरपर वार किया ।  सहा न जायेगा भारत को ,  गुलाम बनना दुसरों का ॥ १ ॥  भारत के आजादी की हम ,  पूरी कीमत चुका गये ।  जो कोई हकको बतलायेगा ,  बदला लेंगे हम उनका ॥ २ ॥  भारत की सारी जनता और  पंथ - पक्ष सब एक हुए ।  हिम - गिरिसे साधू - जन निकले ,  मुकाबला करने ' चीन ' का ॥ ३ ॥  शूर लडेगा हथियारों से ,  किसान नाज उगायेगा |  साधू जागृत कर जनता को  दूर करेगा यह धोखा ॥ ४ ॥  तुकडयादास कहे हम आये ,  बिहार और आसाम भूमि ।  जन - जन में खूब जोश बढाकर ,  नाश करेंगे शत्रू का ॥ ५ ॥ 

चाहिए प्रेम ही, फिर तो किसकी कमी

 ( तर्ज - श्याम सुंदरकी मीठी लगी )  चाहिए प्रेम ही, फिर तो किसकी कमी  दिखती दो किसका नाम ,  हम भी लेते हमी || टेक || दिखती जिसके बदनपर प्रभूकी छटा बांके दर्शनसे जाता है पातक हटा मै तो यह ना कहूँ बात  है लाजबी ॥ १ ॥ सदा संत संगतसे न्हाया कोई ।  उसके जीवनको कबहूँ भी धोखा नहीं ।।  मै तो दिलसे कहूँ ,  नम्र है आदमी ॥ २ ॥  ऐ मेरे प्रेमीयों प्रेम तो सीखलो ।  मजा क्या है इसीमें , जरा देख लो ॥  दास तुकड्याने पाया  निशाना यही ॥ ३ ॥ 

अपने आतम के चिंतन में

  ( तर्ज - उठा गडया अरुणोदय झाला ० )  अपने आतम के चिंतन में ,  हरदम जागृत रहना है ।  ओहं सोहं श्वास से अपनी  अंतरदृष्टी निरखना है || टेक || चंचल मनको बुद्धि विचारक ,  शुद्धी सततही करना है ।  निश्चल कर वृत्ती की धारा ,  अंतरमुख से स्थिरना है ॥ १ ॥  सहज समाधी चलते हलते ,  सब कामों में रखना है ।  विश्वरुप विश्वात्मक दृष्टी ,  अनासक्ति से चखना है ॥ २ ॥  सुखदुःख दोनों जीवधर्मं है ,  इनसे निवृत्त होना है ।  सदा आत्म - आनंद की मस्ती ,  पलपल में अनुभवना है ॥ ३ ॥  संत मिले सतसंग लाभकर ,  ग्यान ध्यान में रमना है ।  कर्मफलों का त्याग निहित कर ,  शांतीस्थान में जमना है ॥ ४ ॥  यह मानव - जीवन में इतनी ,  मंजिल चढ़कर जाना है ।  तुकडचादास कहे यह बानी ,  रोज - रोज ही गाना है ॥ ५ ॥ 

लाखो गरीब बैठे है दरबार तुम्हारे

  ( तर्ज - साबरमती के सन्त तुने ० )  लाखो गरीब बैठे है दरबार तुम्हारे ।  मिलती है वहाँ शान्ति ,  जनता ही पुकारे ॥ टेक ॥  लहानूजी मेरे बाबा !  तू कौन ? बता दे ।  किस देवताने तुझको  मोहा है ? दिखा दे ।।  कुछ तेरे करिश्मों को ,  हम भी तो निहारे ।  मिलती है वहाँ शान्ति ० ॥ १ ॥  गाली में तेरी रंगत ,  तेरी मार में बर है ।  किसिको प्रसाद दे तो  बस वेही पार है ॥  कितने ही बिमारों को  अच्छा बना डारे ।  मिलती है वहाँ शान्ति ०॥ २ ॥  दिखता न तेरा भेख- कोई  जोगी गुसाँई ।  पर उनसे नहीं कमती  तेरी साधुता भाई !  किस अवलियाने तन - मन  बरदान से तारे ?  मिलती है वहाँ शान्ति ० ॥ ३ ॥  बरखेड का गुरुदेव तेरा  इष्ट बडा था ।  जंगल में तेरा डेरा  कई साल पड़ा था ॥  तुकडघा कहे ए बाबा !  अमर कीर्ति के तारे !  मिलती है वहाँ शान्ति ० ॥ ४ ॥