( तर्ज - छंद ) दिया खुशीसे जान प्राण है संकट में उतरा । नैय्या पडी मँझधार - उतरा चारों ओर खतरा ॥धृ ० ॥ माल पडा है जगाजगापर , पर खाने को रोना । जहाँ वहाँ इंतजाम बाँका , पर होती है दैना ॥ समझ नहीं आता है , ईश्वर भी क्यों देख रहा है । पाप हमारा बढा हुआ है , क्यों नहीं यह कहता है । कौन इसे समझायें दुनियावालों नेक रहो ना । ईश्वर के घरमें तो होता , ईमान का ही पाना ॥ या तो सत्ता ऊठ चले , अब - बचा बचाकर पथरा । नैय्या पडी मँझधार - उतरा चारों ओर खतरा ॥ १ ॥ नहीं रहा इन्सान कहीं , जो ऊठ अवाज उठा दे । जो मिलता वह जेबही काटे , भले हो सीधे सादे ॥ घर - घर में हो भ्रम फैला है , नहीं विश्वास भी अपना । कैसा काम चलेगा- यह तो , दिख पडता है सपना || धर्म गया और कर्म गया हसता रस्तेका चतरा । नैया पडी मँशधार - उतरा चारों ओर खतरा ॥ २ ॥ निसर्ग भी कुछ देख रहा है , कितना पानी इसमें पानी बिन जिन्दगानी कैसी ,...