मैं ब्रह्म कहूँ तो लाज , होति है आज , रहा अन्दाज , समझ नहिं आया । मन के ही नाचे , नचे देह की माया ॥टेक ॥ यदि कहूँ देह को ब्रह्म कहना ये गलत हो जावे । यदि कहूँ - ब्रह्म है मन , ये चंचलपन , वहाँसे भिन्न , स्थीर नहिं होता । पलभरमें लहरे मारे , खाता गोता । ( तर्ज ) ब्रह्म तो कल्पनातित है । जहाँ वृत्ति उठे नहीं , स्थित है । इन्द्रीय अश्व के साथ , भगे दिनरात , विषय ले हाथ , बहाते लाया । मन के ही नाचे , नचे देह की माया ! ॥ १ ॥ नहिं तीन अवस्था ब्रह्म , वही हैं कर्म , जीव का धर्म , प्रकट होता है । यदि मूलतत्व को जीव जाय , तब पाये ॥ वृत्तिका जहाँसे स्त्रोत , वही है मंत्र साधना तंत्र , अनुभव गाये जो सुक्ष्म अंतरंग में पता कर लाये । ( तर्ज ) हर इन्द्रिय द्वार उसीका । पर साक्षि रहे वह सबका । सबकी ही स्फूर्तिका केंद्र , चन्द्रका चन्द्र , इंद्रका इंद्र , साक्षि समझाया मनके ही नाचे नचे देह की माया ! ॥२ ॥ मनको ही स्थिर कर लाये ,...